एक
तुलसी पत्नी का ताना सुनकर घर छोड़कर निकल पड़े। घर में उनकी पत्नी रत्नावली सारी रात दरवाजे पर खड़ी-खड़ी उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रही। वे सोच रही थीं-अब मैं उनका मुस्कराकर हर दिन की तरह स्वागत करुँगी। यह सोचकर वे मुस्कराकर देखती हैं पर उनकी मुस्कराहट शंका के ऑँगन में विलीन हो जाती है।
सुबह होने को है। वे वापस नहीं लौटे। पति-पत्नी के बीच तानों का लेन-देन तो चलता ही रहता है। तुम भी तो अपनी साहित्यिक भाषा में मुझसे क्या-क्या नहीं कहते थे। मैंने बात कुछ इसी तरह कह दी तो रूठ कर चले गये। तुम्हें पता नहीं है, भौजी बड़ी वो हैं। मजाक-मजाक में ऐसीं-ऐसीं बातें कह जाती हैं कि मन आहत हुये बिना नहीं रहता।
घर के लोग जाग जाते तो क्या कहते? हाय राम! आप चोरी छुपे ससुराल आए थे। मेरे लिए तो यह मरने की बात हो जाती। भौजी के स्वभाव को तो आप जानते ही हैं। इसी डर से तो ऐसी बातें निकल गयीं। मुझे क्या पता था ? आप इतना बुरा मान जाओगे, नहीं तो कभी कुछ न कहती।
हाय राम! सुबह सब लोग सुनेंगे कि मैने तुम्हें भगा दिया। पिताजी और काकी क्या कहेंगे ? मुझे कितना डाटेंगे, इसका तुम्हें कुछ भान है ?
हाय मैं यहीं खडी हूँ ! कहॉं ढूँढू? अंधेरी रात है। बूंदा-बांदी हो रही है। बिजली कौंध रही है। तेज हवा चल रही है। ऐसे मैं कहॉं निकलूँ ? जब बिजली चमकती है, दूर-दूर तक निगाहें फैंक चुकी। कहीं कोई नहीं दिखता। इस वक्त जोर से टेर लगाऊॅं तो जो सुनेगा, क्या कहेगा ? बावली हो गयी है।
मैंने तुम्हें उपदेश दे दिया। अरे ! गुरू के बिना ज्ञान थोडे ही मिल जाता है। फिर मैं तो आपकी पत्नी हूँ,कोई गुरु हूँ! मैं भी कैसी जो अपने आप को गुरु बनाने लगी ! ऐसे तिरियाँ क्या-क्या नहीं कहती ? क्या सब ऐसे ही घर से निकल जाते हैं ? मैं मैके में रहने तो आई नहीं थी। एक दो दिन में पहुँच जाती। मैं जानती हूँ तुम्हें मुझसे अगााध प्यार है। बात तो चुभती हुयी निकल ही गयी, अब कोई कुछ कहले। मैं भी क्या करती ? गहरी नींद में सो रही थी। स्वप्न में जाने क्या-क्या देख रहीं थी ? तभी आहट पाकर जाग गयी। आपको सामने देखा तो यह बात निकल गयी। हाड़मांस के लिए इतने अधीर बने फिरते हो ? इतने अधीर यदि राम के लिए होते तो उद्धार हो गया होता।... मैंने तो यह बात विनोद में कही थी। सुबह होने को है, लौट आओ।
मैं जानती हूँ । तुम बहुत हठी हो। तुम मुझे मैके नहीं आने देते थे, तो नहीं आने देते थे। मुझे भी वहॉं कितने दिन हो गये थे। एक देहरी का होकर रहने से मन उक्ता जाता है। इसी कारण तीर्थयात्रा एवं घूमने- फिरने का चलन चला होगा। वहॉं काकी की बहुत याद आती थी। इधर भैया लिवाने पहॅुँच गये। तुम घर पर न थे। तुम्हारे दो दिन बाद लौटने की आशा थी, फिर आप आज ही कैसे लौट आये ? दो दिन बाद आते तो यह मौका ही नहीं आता। मैं घर पहॅुँच जाती। अब तो चिडियॉँ चहचहाने लगी हैं! वे लौटे नहीं हैं। कहीं चले गये होंगे! कहाँ चले गये हांगे ? समझ में कुछ भी तो नहीं आ रहा है। मैं तुम्हें अच्छी तरह जान चुकी हूँ कि आप जिस बात की ठान लेते हैं, उसे पूरा करके ही मानते हैं। दृढ़ संकल्प जिसमें हो वह संसार में क्या नहीं कर सकता ?
सुबह ही बैजू खवास रत्नावली के पिता दीनबन्धु पाठक के घर आया। बोला-‘पालागन महाराज।’
उन्होंने आशीष दिया-‘रामजी तुम्हें सदा सुखी रखें। कहो, आज इतने सबेरे इधर कैसे चला आया ?’
प्रश्न सुनकर उसने उत्तर दिया-‘यों ही चला आया। आज मुझे दस्त लग रहे थे। रात जब दिशा मैदान को निकला तो एक आदमी आपके घर की तरफ जाते दिखा। मैं डर गया कहीं भूत-प्रेत न हो।......और अंधेरी रात में कौन हो सकता है ? आप जरा घर में जाकर तो देखिये, कहीं चोर-बोर तो नहीं था। घर की सब चीजें देखभाल लेना। इन मुगलों के जमाने में कहीं कोई व्यवस्था ही नहीं है। कर इतने बढ़ गये हैं कि किसान का तो जीना ही हराम हो गया है।’ यह कहते हुये वह चला गया था। पाठक जी अपने घर के अंदर चले गये।
दीनबन्धु पाठक जी के कोई लड़का न था। इनके भाई बिन्देश्वर का देहान्त हो चुका था। उनके लड़के का नाम गंगेश्वर, उसकी पत्नी का नाम शांती है। घर में गंगेश्वर की माँ केशरबाई सबसे वयोवृद्ध हैं। वे रतना की काकी हैं। काकी और भाभी घर के काम में लगी रहती हैं।
जब पाठक जी अन्दर पहॅंचे तो उन्होंने तलाश की, कहीं कुछ पता ही नहीं चला। घर की कोई चीज गायब भी न हुयी थी। वे इसी टोह में रत्ना के कक्ष की तरफ बढ़े। रत्ना दरवाजे पर ही खडी थी। काकी भी उनके पीछे आ गयी। उसने प्रश्न किया-‘बिटिया गॉँव में आज बड़ा खरखसा था। तू अपने कपड़े लत्ते तो देख ले। कहीं कोई चोर उचक्का कुछ उठा तो नहीं ले गया।’
रत्नावली के शरीर में यह सुनने के बाद भी कोई हलचल नहीं हुयी तो काकी को सन्देह हुआ, बोली-‘तू चुप क्यों है। तेरा चेहरा उतरा हुआ है। बोल क्या बात है ?’
उसके मुँह से शब्द निकले-‘वे आये थे........ चले गये।’
काकी ने बात को साफ करना चाहा-‘वो कौन तुलसी ? अरे ! तुमने उसे रोका क्यों नहीं ? तो क्या वह रात में चोरी छिपे आया था ! ऐसा आदमी भी हमने कभी नहीं देखा, और तो किसी का शादी ब्याह होता नही, दो चार दिन के लिए लड़कियों को दुनियॉँ बुलाती है। ये हैं कि इस तरह.........।’
बात काटते हुये दीनबन्धु पाठक बोले-‘वह आया था उसे रोकना चाहिए था। नरम पौधा है।’
सभी हक्के-बक्के से रह गये। घर का वातावरण गम्भीर हो गया। गंगेश्वर की पत्नी शांती ननद के पास गयी। उसका सारा विनोदी स्वभाव काफूर हो गया। रुऑंसे स्वर में रत्ना से पूछने लगी-‘तुमने कुछ कह तो नहीं दिया। बडी लाजवन्ती हो। तुम्हारे इस स्वभाव को बदलने के लिए कितना क्या नहीं कहती रहती ? पर हमारी ननद रानी पर कहीं कोई असर ही नहीं हुआ। अरे ! वो यहॉँ आने की मना करते थे ,तो भैया से मना कर देतीं।’
गंगेश्वर वहॉँ आ चुका था। उसने सारी बातें समझ ली थीं। आते ही उसने पत्नी की बात भी सुन ली थी। वह अपनी सफाई देते हुये बोला-‘मुझे यह पता होता कि महाराज ऐसे स्वभाव के हैं तो मै इससे कभी आने की न कहता।’
शांती ने पति को डाँटा-’जरा, मुझे इनसे पूछ तो लेने दो, क्या बात हुयी है ?’
उसकी बात सुनकर गंगेश्वर यह कहते हुये बाहर चला गया-‘ठीक है पूछ लो, मैं अभी आता हूँ।’
शांती पुनः रत्नारवली से पूछने लगी-‘अरे ! अब बात साफ-साफ कह दो, क्या हुआ ?’
यह सुनकर रत्नावली बोली-‘भौजी मैंने तो बस इतना ही कहा है।’ कहते हुये उसका गला रुक गया। आँखों से ऑंसुओं की धार वहने लगी। रोना शुरू हो गया। हिचकियाँ समा न रही थीं। यह देखकर शांती ने उसे जेट भर कर गले से लगा लिया। पुनः पूछा-‘कह-कह ,ऐसा क्या कह दिया ? जिससे महाराज इतने गुस्से में आ गये। आखिर हम भी तो सुने।’
वह बोली-‘मैंने तो कह दिया, हाड़मांस के लिए इतने अधीर बने फिरते हो। इतने अधीर यदि राम के लिए होते तो उद्धार हो गया होता।’
यह सुनकर शांति बोली-‘बस इतनी सी बात पर रूठ गये। इसमें तुमने ऐसा क्या कह दिया ? तुम चिन्ता मत करो, देखना महाराज एक दो दिन में इधर-उधर भटक कर लौट आते हैं। लेकिन तुमको भी ननद जी हिम्मत रखनी पड़ेगी। ये रोना-धोना छोड़ो। जब आयेंगे, हम भी नाक रगड़वाये बिना तुम्हें भेजने वाले नहीं हैं। बडे़ विद्वान बने फिरते हैं। इतना भी नहीं जानते। औरत का रखना खेल नहीं है ! हाथी का पालना और नारी का रखना बराबर है।’
अब घर के सभी लोगों का मन उनके लौटने के उस छोर से बंध गया था जिससे जहाज का पक्षी बंध जाता है। उसे लौटकर जहाज पर ही आना पडता है। यही आशा की किरण सबको बाँधने का काम कर रही थी। इससे सभी को लगने लगा था ,वे लौटकर अवश्य आयेंगे।
रत्नावली अपनी अन्तर्रात्मा में सब कुछ महसूस करने लगी थी। उसे वे दिन याद आने लगे जब पति से आस्तिक और नास्तिक के द्वंद को लेकर कहा सुनी हो जाती थी। वह मन ही मन एक ही बात को लेकर घुलती रहती-आप इतने बडे महापण्डित, वेद और शास्त्रों के तर्क देकर, ईश्वर की सत्यता को प्रमाणित करना आपको कितना सहज था। आप सत्य को समझते हुये, क्यों मेरे शरीर में इतना अनुराग रखते थे ? इससे मुझे लगता था-आपके सारे तर्क व्यर्थ हैं। शायद ईश्वर होता ही नहीं होगा, तभी तो आप हाडमांस से इतना प्रेम करते हैं। आपका ईश्वर के बारे में तर्क सच्चा है या हाडमांस के प्रति प्रीति। एक म्यान में दो तलवारें तो रह ही नहीं सकती।
मैं इन तर्कों में पड़कर कभी-कभी सोचती रहती हूँ-कहीं कोई ईश्वरीय सत्ता नहीं होती। सब आदमी के अंदर जन्मे जन्म-जन्मांतर के संस्कार हैं। जिसके कारण आदमी इस तरह सोचता है। ये जो बडे़-बडे़ पण्डित हैं, समाज में जाकर तो ईश्वर की बडी लच्छेदार भाषा में व्याख्या करेंगे। लेकिन घर आकर इतने सांसारिक बन जायेंगे कि इन लोंगों की कथनी और करनी में फर्क लगने लगता है।
उस दिन त्याग और तपस्या की इतनी-इतनी ऊॅंची बातें कर रहे थे कि लगता था, संसार में आप से ऊॅंचा कोई संत महात्मा हो ही नहीं सकता। मेरे पास आते ही, पता नहीं आपका पाँण्डित्य कहाँ चला जाता था! शेष रह जाता था पशुत्व। मात्र वासना का एक पुतला। मुझे आपके इस रूप से पता नहीं क्यों इतनी घिन थी कि मैं आपके इस चरित्र को सुधारने हेतु घण्टों सोचती रहती थी। जरा सोचो, मैंने जो कुछ कह दिया-क्या यों ही बिना सोचे-समझे कह दिया ? तुम घण्टों भगवान के सामने बैठे रहते। जब मेरे पास आते और कहते ’रत्ना ईश्वर के भजन में तुम्हीं दिखती हो। मैं तो तुम्हारा ही पुजारी हो गया हूँ। भगवान की मूर्ति में तुम्हीं दिखने लगती हो।’
ऐसी बातों से मुझे लगता-भगवान की मूर्ति के सामने बैठने से क्या फायदा ? स्वामी आपकी इन बातों ने ही मेरी बुद्धि भ्रमित कर दी।
आप जितनी भौतिक जगत की पूजा करने लगे थे उससे लगता है-संसार में भौतिक जगत ही सब कुछ है। कहीं कोई ईश्वरी सत्य नहीं है ?
इसी समय काकी केशरबाई वहॉं आ गयी। बोली-‘क्या सोचती रहती है बिटिया ? देख तेरा भैया ‘गंगेश्वर उन्हें खोजने कहॉं-कहाँ नहीं हो आया। चल उठ कलेवा करले।‘
कुछ दिनों बाद पता चला, वे साधू बन गये हैं। जब यह प्रसंग रत्नावली ने सुना तो सोचने लगीं-भक्त के लिए पत्नी बाधक होती है। यह बात भी मुझे तीर की तरह पीड़ा देती है। इससे नारी का स्तर बहुत नीचे चला जाता है। लोग नारी को नरक का द्वार कहकर अपमानित करते हैं। धरती माँ को यह संबोधन देना उचित नहीं है। नारी, नारी ही नहीं माँभी है। माँका ऐसा अपमान कैसे सहन किया जा सकता है ? एक दिन की बात है जब उनसे इसी बात को लेकर कहा-सुनी हो गयी थी। मैंने तो साफ-साफ कह दिया था कि आप तो नारी के बाह्य रूप को ही देख सके हैं, उसका अतःकरण देख पाना आपकी समझ से परे है।
मानवीय संवेदना, चाहे पुरुष में हो चाहे नारी में, एक ही होती है। लेकिन नारी को पथ को रोड़ा मानने वाले ईश्वर की सृष्टि का अपमान ही करते हैं।
प्राचीन काल में क्या ऋषि मुनियों के पत्नी नहीं होती थी, बच्चे नहीं होते थे ? क्या वे आत्मोत्कर्ष से च्युत हो जाते थे ? यदि नहीं तो आप भी घर में रहकर आत्मोत्कर्ष कर सकते थे। मुझे इसमें बाधक नहीं, साधक ही पाते।
आज के युग में घर-बार छोड़कर दर-दर की भीख मॉंगना शोभा नहीं देता। समय की धड़कन को न पहचानना भी न्याय नहीं है। आज मुगलों के काल में पवित्रता चौके चूल्हे तक ही सीमित होती जा रही है। सारे परिवेश बदल गये हैं। आपको कैसे समझाऊॅं कि आप घर लौट आयें। घर को ही मोक्ष का साधन बनायें। जिससे आने वाली पीढ़ियों को समय के अनुकूल बदल कर चलने की राह मिलेगी। लेकिन आप हठी हैं, लौटने वाले नहीं हैं। आप अपने मन की ही करेंगे। मेरी सलाह तो आपको तीर की तरह लगती थी। सोचते होंगे घर लौटकर गया तो ताना दूंगी। मैं ऐसी नहीं हूँ। आपके स्वाभिमान को ठेस न लगे वैसा ही करुँगी। आप एक बार अवसर प्रदान करके तो देखिये।